सेकुलरिज़्म और समाजवाद: भारतीय संविधान के Preamble में 1976 के संशोधन का महत्व
भारतीय संविधान की Preamble में 1976 में किए गए संशोधन ने देश के संविधानिक ढांचे को महत्वपूर्ण दिशा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में उन याचिकाओं को खारिज किया, जो 1976 में संविधान की Preamble में “धार्मिकनिरपेक्ष” (Secular) और “समाजवादी” (Socialist) शब्दों के सम्मिलन को चुनौती दे रही थीं। कोर्ट ने इस संशोधन को संविधान की मूल संरचना के तहत बताया और इन शब्दों की अहमियत को स्पष्ट किया।
संविधान की Preamble में “सेकुलर” और “समाजवादी” शब्दों का समावेश
1976 में आपातकाल के दौरान, 42वें संशोधन के तहत “सेकुलर” और “समाजवादी” शब्दों को संविधान की Preamble में जोड़ा गया। सुप्रीम कोर्ट ने इन शब्दों के महत्व को स्वीकार करते हुए कहा कि “सेकुलर” शब्द भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वभाव को दर्शाता है, जो हर नागरिक को स्वतंत्रता से अपनी पसंदीदा धार्मिक मान्यता का पालन करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह शब्द संविधान के समानता के अधिकार के एक पहलू के रूप में “घनिष्ठ रूप से बुना” हुआ है।
“सेकुलर” और “समाजवादी” शब्दों का महत्व
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “सेकुलर” शब्द राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वभाव को दर्शाता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि भारतीय राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और सभी नागरिकों को समान धार्मिक स्वतंत्रता मिलेगी। कोर्ट ने कहा कि धर्म के प्रभाव से उत्पन्न उन विचारों और प्रथाओं को समाप्त किया जाना चाहिए, जो विकास और समानता के अधिकार को रोकते हैं।
साथ ही, “समाजवादी” शब्द ने सरकार के आर्थिक नीति निर्धारण में किसी तरह की बाधा उत्पन्न नहीं की है, बल्कि यह राज्य के आर्थिक न्याय और समान अवसर के प्रति प्रतिबद्धता को उजागर करता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि “समाजवादी” शब्द का अर्थ केवल एक विशिष्ट आर्थिक नीति से नहीं जुड़ा है, बल्कि यह राज्य के कल्याणकारी राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
याचिकाकर्ताओं ने 42वें संशोधन के तहत “सेकुलर” और “समाजवादी” शब्दों के समावेश को चुनौती दी थी, यह तर्क देते हुए कि संविधान सभा ने जानबूझकर “धार्मिकनिरपेक्ष” शब्द का उपयोग नहीं किया था और यह संशोधन 27 साल बाद लागू किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि संविधान में संशोधन का अधिकार संसद को है, और यह अधिकार अनुच्छेद 368 के तहत अमूल्य है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान में कोई विशिष्ट आर्थिक नीति या ढांचा निर्धारित नहीं किया गया है, चाहे वह बायां हो या दायां। “समाजवादी” शब्द भारतीय संविधान में सामाजिक और आर्थिक न्याय के सिद्धांतों को लागू करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जिसमें राज्य यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी नागरिक आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण वंचित न हो।
संविधान की Preamble में बदलाव और उनका प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि संविधान की Preamble में इन शब्दों के सम्मिलन ने किसी भी सरकार की नीति निर्धारण की स्वतंत्रता को बाधित नहीं किया है। जब तक ये कदम संविधानिक अधिकारों या मूल संरचना का उल्लंघन नहीं करते, तब तक चुनावी सरकारें बिना किसी प्रतिबंध के अपनी नीतियों को निर्धारित कर सकती हैं।
कोर्ट ने कहा, “भारत में लगातार मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल अपनाया गया है, जहां निजी क्षेत्र ने बढ़ोतरी की है और वर्षों से सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।”
याचिकाओं के समय की समीक्षा
सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं के समय पर भी सवाल उठाया। इन याचिकाओं को 2020 में दायर किया गया था, जबकि “समाजवादी” और “सेकुलर” शब्द संविधान की Preamble में 44 साल पहले जोड़ दिए गए थे। कोर्ट ने कहा, “इन शब्दों का व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है, और इनके अर्थ को ‘हम, भारत के लोग’ बिना किसी संदेह के समझते हैं।”
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय देते हुए भारतीय संविधान की Preamble में “सेकुलर” और “समाजवादी” शब्दों के समावेश को संविधान की मूल संरचना के तहत अपरिवर्तनीय माना। संविधान के इस हिस्से में किए गए संशोधन ने न केवल राज्य की धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी प्रतिबद्धताओं को स्थापित किया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर मिलें। कोर्ट का यह निर्णय भारतीय संविधान के प्रस्थापित सिद्धांतों के प्रति देशवासियों की प्रतिबद्धता को और मजबूत करता है।
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