Supreeme Court : सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में महिलाओं के भरण-पोषण के मुद्दे पर महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है, जिसमें कहा गया है कि इसमें कोई धार्मिक बाधाएँ नहीं होनी चाहिए। अदालत ने मुस्लिम महिलाओं को भी अपने पतियों से भरण-पोषण का अधिकार दिलाया है। यह मामला तेलंगाना की एक महिला द्वारा उठाया गया था, जिसने अपने पति से भरण-पोषण की मांग की थी और इस मामले में पति हाई कोर्ट में अपील हार गया था। जस्टिस नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने इस निर्णय को सुनाया।
जस्टिस नागरत्ना ने निर्णय सुनाते हुए यह विचार व्यक्त किया कि अब समय आ गया है कि भारतीय पुरुष अपनी पत्नियों के योगदान को समझें और उनकी कद्र करें। उन्होंने सिफारिश की कि पत्नियों के नाम से वित्तीय खाते खोले जाने चाहिए और साझा बैंक खाते की व्यवस्था की जानी चाहिए। यह सुझाव समानता की दिशा में एक कदम है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने शहबानो मामले में भी उल्लेखित किया था, जिसमें कानून की धर्मनिरपेक्षता को बल दिया गया था।
मामला तेलंगाना से संबंधित है, जहाँ एक मुस्लिम महिला ने अपने पूर्व पति से मासिक गुजारा भत्ता प्राप्त करने हेतु अदालत में याचिका दायर की थी। याचिकाकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत यह याचिका दाखिल की, जिसमें उसे प्रति माह 20,000 रुपये का अंतरिम गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया गया। हाई कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी गई, क्योंकि दंपति ने 2017 में मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुरूप तलाक लिया था।
महिला के पति, मोहम्मद अब्दुल समद ने परिवार अदालत के फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। उनकी याचिका पर विचार करते हुए हाई कोर्ट ने गुजारा भत्ता की राशि को संशोधित करके प्रति माह 10 हजार रुपये निर्धारित की। साथ ही, हाई कोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय को इस मामले को छह महीने के भीतर निपटाने के आदेश दिए थे।
अप्रैल 2022 में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले के निर्णय में स्पष्ट किया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला इद्दत की अवधि के पश्चात भी गुजाराभत्ता प्राप्त करने की अधिकारिणी होती है और यह भत्ता उसे तब तक प्रदान किया जाएगा, जब तक कि वह पुनः विवाह नहीं कर लेती।
इस मुकदमे में याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम, 1986 के अनुसार, एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजाराभत्ता का दावा करने का हक नहीं रखती है। याचिकाकर्ता के वकील ने यह भी उल्लेख किया कि 1986 का यह अधिनियम मुस्लिम महिलाओं के हित में अधिक लाभप्रद है