लोकसभा चुनावों में NDA को सबसे बड़ी चुनौती सपा-कांग्रेस के गठबंधन से मिली, जिन्होंने उन्हें तीव्र प्रतिस्पर्धा प्रदान की।

लोकसभा चुनावों के परिणाम स्पष्ट करते हैं कि NDA को उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक हानि हुई है। यहाँ उनकी सीटें बढ़ाना तो क्या, वे अपनी मौजूदा सीटों को भी संभाल नहीं पाए। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की साझेदारी ने उन्हें चुनौतीपूर्ण प्रतिस्पर्धा दी और कहीं न कहीं उन्हें हार की सीमा तक पहुंचा दिया। आओ जानें वे पांच कारण जिनके चलते उत्तर प्रदेश में BJP का दांव उलट गया।


जैसे ही चुनाव आरंभ हुए, यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा ने प्रत्याशियों के चयन में कुछ बड़ी भूलें की हैं। स्थानीय जनता की नाराजगी को नजरअंदाज करते हुए उन्होंने उन व्यक्तियों को उम्मीदवारी दी, जिन्हें वोटर्स शायद पसंद नहीं करते। इस कारण कई पुराने समर्थकों ने वोट देने का मन नहीं बनाया। उम्मीदवारों का अयोग्य चयन कार्यकर्ताओं को भी रुचिकर नहीं लगा और उन्होंने अपेक्षित परिश्रम नहीं किया। इसका परिणाम भाजपा को प्राप्त होने वाले मत प्रतिशत में घट बतायी गई। 2019 में जहां उन्हें लगभग 50% वोट मिले थे, वहीं इस बार केवल 42% वोट मिलने का अनुमान है, यानि कि वोट प्रतिशत में लगभग 8% की कमी आई है।

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने बताया, “मैं पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को उनके उत्कृष्ट नेतृत्व के लिए शुभकामनाएं देना चाहता हूँ। उनके मार्गदर्शन में कांग्रेस ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है। इसके साथ ही, मैं राहुल गांधी को भी बधाई देना चाहूंगा क्योंकि यह उनकी विचारधारा के प्रति उनके समर्पण और परिश्रम की विजय है। भाजपा को इस बार स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होने वाला है, और यदि ऐसा होता है तो पार्टी के भीतर विवाद शुरू हो सकता है।

समाजवादी पार्टी पर पूर्व में यह आलोचना होती रही है कि वे विशेष रूप से केवल एक विशिष्ट समुदाय या जाति को टिकट वितरण में प्राथमिकता देते हैं। हालांकि, इस चुनाव में अखिलेश यादव ने बड़ी सावधानी बरती और जातिगत समीकरणों का विचार करते हुए प्रत्याशियों का चयन किया। इसकी बदौलत उनके उम्मीदवारों ने मेरठ, घोसी, मिर्जापुर जैसी सीटों पर भाजपा के खिलाफ मजबूत प्रतिस्पर्धा की और एनडीए के प्रत्याशियों को कठिनाई में डाल दिया।

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 400 पार’ का आह्वान किया, तब भाजपा के कुछ नेताओं ने यह दावा करना शुरू कर दिया कि इतनी संख्या में सीटें इसलिए आवश्यक हैं क्योंकि संविधान में परिवर्तन करना है। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने इसे आरक्षण के मुद्दे से जोड़ दिया और आरोप लगाया कि भाजपा इतनी अधिक सीटें इसलिए चाहती है ताकि वह संविधान को बदल सके और आरक्षण को समाप्त कर सके। यह बात दलित और ओबीसी समुदायों में तीव्रता से प्रसारित हुई और इसका परिणाम वोटों के रूप में दिखाई दिया। कई स्थानों पर दलित मतदाता सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर झुकते नजर आए।

भाजपा सरकार पर आरोप जारी हैं कि वे रोजगार मुहैया कराने में असमर्थ हैं और परीक्षा पत्रों के लीक होने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। इन घटनाओं के निवारण के लिए कोई मजबूत उपाय नहीं किए गए हैं। कई युवा वर्षों से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे हैं, किन्तु उनकी उम्र सीमा समाप्त होती जा रही है और वे परीक्षा देने में असमर्थ हैं। यह युवाओं के बीच एक गंभीर मुद्दा बन गया है, जिसके चलते कई युवा भाजपा से निराश नजर आ रहे हैं और यह नाराजगी मतों में भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है।

 

मायावती ने ऐसे प्रत्याशी चुने जिनकी वजह से सपा-कांग्रेस गठबंधन को लाभ हुआ। इससे भाजपा को काफी हानि उठानी पड़ी। इसके परिणामस्वरूप दलित मतों में भी विभाजन देखा गया। विशेष रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा के उम्मीदवारों ने भाजपा के लिए बड़ी चुनौती पेश की। मेरठ, मुजफ्फरनगर, चंदौली, खीरी, और घोसी लोकसभा सीटों पर इसी कारण से मुकाबला अधिक दिलचस्प हो गया।

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